जब हम हिंदी सिनेमा के सफल निर्देशकों और निर्माताओं की बात करते हैं, तो आनंद एल. राय का नाम सबसे ऊपर आता है। उनकी फ़िल्मों में एक ख़ास तरह का अपनापन, देसीपन और भावनाओं की गहराई होती है, जो दर्शकों को सीधा दिल से जोड़ती है। ‘तनु वेड्स मनु’, ‘रांझणा’, ‘अतरंगी रे’ और ‘जीरो’ जैसी फ़िल्मों के पीछे यही ख़ास ‘टच’ है, जो उन्हें भीड़ से अलग करता है।
लेकिन इस चकाचौंध भरी दुनिया के बीच भी, आनंद एल. राय अपनी जड़ों को कभी नहीं भूलते। वह अक्सर बातचीत में या अपने निजी पलों में इस बात का ज़िक्र करते हैं कि कामयाबी चाहे कितनी भी बड़ी क्यों न हो, उन्हें अपने अंदर के ‘दिल्ली के मध्यम वर्ग के लड़के’ को हमेशा ज़िंदा रखना पड़ता है।
मुंबई, सपनों का शहर है, और इस शहर में कामयाबी हासिल करने के बाद आनंद एल. राय का भी एक शानदार ठिकाना है – एक आलीशान पेंटहाउस। यह पेंटहाउस उनकी मेहनत, सफलता और बड़े कैनवास वाले सिनेमाई दृष्टिकोण का प्रमाण है। यहाँ से मुंबई की जगमगाती रातें और समुद्र का नज़ारा दिखता है।
लेकिन जैसे ही वह दिन भर की शूटिंग या मीटिंग्स खत्म करके अपनी गाड़ी से इस ऊँचे और भव्य घर की तरफ़ बढ़ते हैं, तो उनके मन में एक धीमी सी आवाज़ गूँजने लगती है। वह आवाज़ उन्हें याद दिलाती है कि यह जगह, यह आराम, और यह बड़ी कामयाबी उनकी हकीकत का सिर्फ़ एक हिस्सा है।
उन्हें लगता है, “मैं चाहे कितना भी बड़ा डायरेक्टर बन जाऊँ, यह पेंटहाउस मेरा सिर्फ़ पता है, मेरी पहचान नहीं।”
आनंद एल. राय के लिए, अपनी असल पहचान को बचाए रखना सबसे ज़रूरी है। वह जानते हैं कि उनकी फ़िल्मों में जो सच्चाई और सादगी है, वह उन्हें दिल्ली के उस साधारण घर, उन तंग गलियों और उन मध्यम-वर्गीय संघर्षों से मिली है।
अगर वह अपने आप को उस मध्यम-वर्गीय पृष्ठभूमि से अलग कर लेंगे, तो वह अपनी कहानी के किरदारों से कनेक्ट नहीं कर पाएँगे। ‘रांझणा’ का कुंदन हो, या ‘तनु वेड्स मनु’ की सीधी-सादी लेकिन मस्तमौला मनु, ये किरदार उनकी जड़ों का आईना हैं।
वह अक्सर कहते हैं कि जब वह अपने मुंबई के पेंटहाउस के सोफ़े पर बैठते हैं, तो उन्हें खुद को यह याद दिलाना पड़ता है कि उन्हें कल फिर उसी ‘दिल्ली के लड़के’ की तरह सोचना है, जो छोटी-छोटी खुशियों में बड़ी संतुष्टि ढूँढता था। उन्हें यह एहसास बनाए रखना पड़ता है कि:
वह एक ‘स्टार’ नहीं, बल्कि ‘स्टोरीटेलर’ हैं।
उन्हें साधारण लोगों की भावनाओं को समझना है, न कि सिर्फ़ बड़े बजट के बारे में सोचना है।
उनके दर्शक वही मध्यम वर्ग के लोग हैं, जो सिनेमा हॉल में अपनी ज़िंदगी का एक टुकड़ा ढूँढने आते हैं।
यह आत्म-बोध उनके लिए एक तरह का ‘चेक’ है। यह उन्हें ज़मीन से जोड़े रखता है और अहंकार को पास नहीं आने देता। हर शाम, जब वह अपने शानदार घर की लिफ्ट में ऊपर जा रहे होते हैं, तो यह सोचना कि “मैं आज भी उसी ‘दिल्ले के छोरे’ जैसा हूँ”, उनके लिए एक ज़रूरी कसरत है।
यह सिर्फ़ एक पुरानी बात याद करना नहीं है, यह उनकी रचनात्मक प्रक्रिया का हिस्सा है। इसी वजह से उनकी फ़िल्में इतनी ‘अपनी’ लगती हैं। वह मुंबई में रहते हुए भी, दिल्ली के दिल से कहानियाँ बनाते हैं।
टीवी सीरियल और बॉलीवुड की लेटेस्ट गॉसिप और अपकमिंग एपिसोड के लिए बने रहिए tellybooster के साथ।

